मैया मेरी

कीर्तन
एक बात मैया मेरी याद रखना...मन्जू गोपालन/श्री सनातन धर्म महिला समिति, कीर्तन स्थान: बाग मुज़फ़्फ़र खां, आगरा यहां क्लिक करके यू ट्यूब पर देखिए मैया मेरी

Saturday, February 26, 2011

दयानन्द सरस्वती

महर्षि दयानन्द को नमन
(187वां जन्मोत्सव, 27 फ़रवरी 2011)
दयानन्द जी ने गौ हत्या का दृढ़ता से विरोध किया। अपनी पुस्तक ‘गौ करुणानिधि’ में स्पष्ट किया है कि मांस भक्षण से मानव मात्र का अपकार होता है, जीवों का पालन करने से प्राणी मात्र का उपकार होता है। स्वामी दयानन्द जी ने नारी शिक्षा आरम्भ करायी।उनको वेद पढ़ने का अधिकार दिलाया। आज यह महर्षि की ही देन है कि देश की महिलाएं अबला से सबला बन गयीं हैं। उन्होंने विधवाओं का पुनर्विवाह कराया। उन्होंने छुआछूत का सदा विरोध किया। 
उन्नीसवीं सदी में चारों ओर अराजकता का बोलबाला था। नर हत्या को खेल समझने वाले ठगों के आतंक से जनता सदा त्रस्त रहती थी। सामाजिक स्थिति इतनी दयनीय थी कि चार आश्रमों और चार वर्णों की दृढ़ नींव पर टिके समाज की एक-एक चूल हिल रही थी। छुआछूत ने समाज को हजारों भागों में बांट दिया था। कन्याओं को गला घोंटकर मार दिया जाता था। विधवाओं को ढोल-धमाकों के साथ जबर्दस्ती सती कर देने को परम धर्म समझा जाता था। हजारों वर्ष के अपने पतन के सिलसिले को देखकर भारत मां खून के आंसू रो रही थी। ऐसे घनघोर अंधेरे में अचानक एक बिजली सी चमकी, रेगिस्तान में जैसे अमृत की धारा बह गयी। भारत मां को एक लाल मिल गया जिसको महर्षि दयानन्द सरस्वती के नाम से जाना जाता है।
सन्‌ 1824 में फ़ाल्गुन कृष्ण पक्ष दशमी को गुजरात में टंकारा ग्राम में श्रीकृष्ण जी के घर एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम मूलशंकर रख गया। बाद में शिक्षा व योग्यता के आधार पर विद्वानों ने इनको दयानन्द सरस्वती नाम दिया। वह प्रकाश का रक्षक एवं प्रचारक था। वह प्राणी मात्र का रक्षक था। वह सांसारिक प्रलोभनों और भोगों से लोहा लेने वाला धुरन्धर योद्धा और विजेता था। दयानन्द वह महामानव थाजिसने अध्यात्म को क्रियात्मक रूप देने में अभूतपूर्व सफ़लता प्राप्त की। उन्होंने कहा था कि योगी बनो, साथ ही कर्मयोगी भी बनो।वेदों की ओर लौटो। आत्मज्ञानी बनो परन्तु मानव भी बनो। वह उन व्यक्तियों में से थे जिन्हें वेद और ब्राह्मण ग्रन्थों का अध्ययन करके देवताओं की श्रेणी में अग्रणी माना जाता था। वे मानव जाति की प्रेरणा और आदर के पात्र रहे, आज भी हैं और सदा रहेंगे।
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सर्वप्रथम स्वराज्य शब्द का प्रयोग किया था। उन्होंने कहा था कि सुराज से स्वराज्य श्रेष्ठ है। स्वतन्त्रता संग्राम में 85% लोग उनके अनुयायी थे। कॉंग्रेस का इतिहास इस बात को प्रमाणित करता है। जितने भी शहीद हुए हैं उनके बारे में पता चलता है कि उनके प्रेरणास्रोत महर्षि दयानन्द ही थे।
अन्याय और काले धन का विरोध कर रहे योगगुरू के रूप में विख्यात बाबा रामदेव महर्षि दयानन्द सरस्वती के ही परम भक्त हैं। दयानन्द जी ने गौ हत्या का दृढ़ता से विरोध किया। अपनी पुस्तक ‘गौ करुणानिधि’ में स्पष्ट किया है कि मांस भक्षण से मानव मात्र का अपकार होता है, जीवों का पालन करने से प्राणी मात्र का उपकार होता है। स्वामी दयानन्द जी ने नारी शिक्षा आरम्भ करायी। उनको वेद पढ़ने का अधिकार दिलाया। आज यह महर्षि की ही देन है कि देश की महिलाएं अबला से सबला बन गयीं हैं। उन्होंने विधवाओं का पुनर्विवाह कराया। उन्होंने छुआछूत का सदा विरोध किया। वे मानते थे कि जन्म से कोई अछूत नहीं होता। स्वामी जी ने मूर्ति पूजा का विरोध किया और जीव पूजा का समर्थन किया।  वे मानते थे कि भारत की गुलामी के मूल में मूर्ति पूजा ही रही है। उन्होंने एक ईश्वर की पूजा पर बल दिया जिसका मुख्य नाम है ‘ओ३म्‌’ । उन्होंने लोगों को यज्ञ करने की प्रेरणा दी। उन्होंने पाखण्ड और अन्धविश्वास का हमेशा विरोध किया। शास्त्रार्थ किये। विश्वभर के विद्वानों को उनके आगे घुटने टेकने पड़े। वे एक महान्‌ योद्धा थे। उन्होंने वेदों का भाष्य हिन्दी में किया। स्वामी दयानन्द का प्रमुख ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ है जिसमें ईश्वर के 108 नामों की व्याखा व 1576 वेद मन्त्रों का विवरण दिया गया है।
उन्होंने सन्‌ 1875 में बम्बई (मुम्बई) में आर्य समाज की स्थापना की। आज आर्य समाज के करोड़ों सदस्य महर्षि के काम को आगे बढ़ा र्हैं। महात्मा गान्धी ने भी लिखा है- महर्षि दयानन्द सरस्वती भारत के आधुनिक ॠषियों व सुधारकों में श्रेष्ठ और अग्रणी थे। उनके कारण ही आज भारत  पुन: विश्व गुरू बनने को अग्रसर हो रहा है।
धन्य हैं ऋषि हैं आप, आपने जग जगा दिया। महर्षि दयानन्द सरस्वती के 187वें वर्ष पर हम उन्हें शत्‌शत्‌ नमन करते हैं।
• सुरेश आर्य
मन्त्री, आर्य समाज, वृन्दावन गार्डन, सहिबाबाद, उ.प्र.





Friday, February 4, 2011

धर्मान्तरित दलित

आरएल फ़्रांसिस
धर्मान्तरित दलितों का आरक्षण
दलित ईसाइयों को आरक्षण दिये जाने का मुद्दा हमारे यहां प्रायः उठता रहता है। इस मुद्दे को लेकर गैर सरकारी संगठन सेन्टर फ़ॉर पब्लिक इन्टरेस्ट लिट्टीगेशन और डी. डेविड द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिकाओं के कारण भी सबके सामने आए। इन्होंने संविधान में वर्णित अनुसूचित जाति आदेश 1950 के तीसरे पैराग्राफ की वैधानिकता को चुनौती दी। इसमें लिखा हुआ है कि हिन्दू, सिख, और बौद्ध के अलावा अन्य धर्म का पालन करने वाला अनुसूचित जाति का सदस्य आरक्षण से वंचित हो जाएगा।

दलित ईसाइयों को नौकरियों में आरक्षण देना राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में आता है। न्यायालय की एक अन्य व्यवस्था के अनुसार राष्ट्रपति के आदेश के अन्तर्गत अनुसूचित जाति और जनजाति की श्रेणियों में प्रविष्टियों के इस अन्तिम रूप में छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। याचिकाकर्ताओं ने तर्क रखा कि न्यायालय द्वारा दी गयी व्यवस्थाएं छुटपुट सामग्री और तथ्यों पर आधारित है। परन्तु अब दलित ईसाइयों को आरक्षण का लाभ देने के पक्ष में व्यापक तथ्य और सामग्री जुटा ली गयी है। अतः अब इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
यह भी उल्लेखनीय है कि पिछड़े और उपेक्षित धर्मांतरित ईसाइयों के एक बड़े वर्ग का मिशनवाद और पादरियों के विरुद्ध अभियान भी काफी समय से चल रहा है। इससे जुड़ी अनेक बातें मुझे कुछ समय पहले पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेण्ट के अध्यक्ष आर. एल. (राम लुभाया) फ्रांसिस ने एक मुलाकात में बतायी थीं। फ्रांसिस वर्षों से इन मुद्दों को लेकर सक्रिय हैं।

चर्च संगठनों के भीतर ही समान अधिकारों के लिए उनकी लड़ाई जारी है। दलित ईसाइयों के लिए आरक्षण की वकालत की जा रही है जबकि इसकी जरूरत ही नहीं है। धर्मान्तरित ईसाइयों के प्रति ईमानदारी निभायी जाए तो उन पर धर्मान्तरण के बाद भी ‘दलित’ का ठप्पा लगाये रखने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
दरअसल आदिवासी या वनवासी समुदाय में घुसपैठ बनाने में मिशनरी जितने सफल हुए हैं उतने हिन्दू दलितों में नहीं। फिर भी बड़ी संख्या में उनका विभिन्न प्रकार के तरीके अपनाकर लम्बे समय से धर्मान्तरण कराया जा चुका है और प्रयास जारी हैं। हिन्दू संगठन इसका निरन्तर विरोध भी करते रहे हैं। यही नहीं धर्मान्तरण पर रोक को लेकर कठोर कानून बनाये जाने की मांग भी लगातार उठती रहती है। 
चर्च और कॉंग्रेस दोनों ही हिन्दू संगठनों और भारतीय जनसंघ तथा आज की भारतीय जनता पार्टी का भय दिखाकर लोगों को अपने पक्ष में कर वोट बटोरते रहे हैं। जबकि आश्चर्य की बात यह है कि राजग के शासन के दौरान इस अल्प संख्यक समुदाय को किसी प्रकार की हानि नहीं हुई। मिशनरी लोगों को विश्वास में लिए बिना उनके निजी कानूनों में परिवर्तन करने में जुटे रहे हैं। यह बात उल्लेखनीय है कि लगभग 95 प्रतिशत लोगों को अपने अधिकारों और कानूनों के बारे में जानकारी ही नहीं है। मिशनरियों को छुटपुट घटनाओं को भी काफी बढ़ाचढ़ाकर अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने में गहरी रुचि रहती है। धन, अंधविश्वास, लालच, भय, सेवा, शिक्षा आदि का उपयोग करते हुए लम्बे समय से वे इस देश के नागरिकों को अपने समाज और अपने लोगों से काटकर कौन से पुण्य का काम कर रहे हैं। जाहिर है उनके ऐसे कार्य के विरुद्ध कभी-कभी हलकी या कठोर प्रतिक्रिया भी हो जाती है तब उन्हें अपने ऊपर हुए अत्याचार का हौआ खड़ा करने का अभियान चलाना पड़ता है।
भारतीय चर्च को इस बात पर गर्व होना चाहिए कि उन्हें इस देश में बहुसंख्यक समुदाय से भी ज्यादा धार्मिक स्वतंत्रता मिली हुई है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि चर्च की विस्तारवादी मानसिकता के चलते देश के कई भागों में टकराव की स्थिति पैदा होती रहती है। उड़ीसा के कंधमाल में घटी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं लोग भूले नहीं होंगे। इससे भारत को दुनिया भर में काफी बदनामी भी झेलनी पड़ी। आज भी कुछ लोग और संगठन अपने स्वार्थो तथा मनमानी के चलते शांति के मार्ग में रोड़ा बने हुए हैं और वे देश को बदनाम करने का कोई अवसर कभी नहीं नही छोड़ते।
टी.सी. चन्दर




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